विस्तार : सीक्रेट ऑफ डार्कनेस (भाग : 17)
आज की रात पिछली रातों से अधिक घनेरी थी। चारों तरफ घना अंधेरा छाया हुआ था, संसार बड़े आनंद से सुकून की नींद सो रहा था। इधर आश्रम में चिंता में डूबे हुए आचार्य सूरज शुक्ल अपने बिस्तर पर सिर्फ करवटें बदल रहे थे, नींद उनकी आँखों से कोसो दूर थी। वे बार-बार सोने का असफल प्रयास करते रहें। उनके नयनो के समक्ष ब्रह्मेश का बालपन, उसकी शैतानियां, उसका भोलापन, उसकी बालहठ याद आने लगी।
कुछ दिन के लिए ही सही परन्तु वह उनसे दूर जा तो रहा था और इधर विवशता थी कि वे चाहकर भी उसे रोक नही सकते थे। न जाने क्यों मन में रह-रहकर ऐसे विचार उत्पन्न हो रहे थे जिन्होंने उनकी नींद खराब कर रखी थी। उन्होंने अपने आँखों के सामने घूमते उस दृश्य को देखा जब बाढ़ में बहकर एक शिशु गंगा के तट पर आया हुआ था, उसकी साँसे जैसे रुकी हुई थी, परन्तु धड़कने धीरे धीरे चल रही थी। आचार्य ने जब चील-कौव्वों को उधर मंडराते देखा तो वहां पहुंचे, चील-कौव्वों के द्वारा प्रहार ने उसे जग दिया था। वह जोर जोर से किलकारी मारने लगा, आचार्य ने उसको देखा उसकी उम्र एक दिन से अधिक की नही लग रही थी परन्तु न जाने कैसे वह अब भी जीवित था।
आचार्य सूरज को उसमें में न जाने क्यों अपने भविष्य की छवि दिखाई दी, उन्हें यह शिशु सामान्य प्रतीत नही हो रहा था। उन्होंने उसे तट से उठाया और अपने सीने से लगाकर चुप कराने लगे। ममतामयी स्पर्श पाते ही वह शिशु चुप हो गया। बाद में लाकर उन्होंने इस शिशु को अपनी पत्नी को सौप दिया। यह अपने अंत से सृजित हुआ था इसलिए इसका नाम ब्रह्मेश रखा गया। कहते हैं न कि पूत के पांव पालने में ही दिखने लगे जाते हैं, ब्रह्मेश अपनी उम्र के बालकों से अधिक कुशल एवं कई प्रकार की कलाओं में निपुण था। आध्यात्मिक ज्ञान के अध्ययन में उसकी विशेष रुचि थी, उसे आश्रम के बालको के साथ रखा गया था परन्तु वह अक्सर अपने प्रिय आचार्य एवं पालक के साथ ही समय गुजारते दिखाई देता। ब्रह्मेश के अंदर वे सभी गुण थे जो एक आदर्श पुत्र एवं एक आदर्श शिष्य में होते हैं। उसकी बस एक ही समस्या थी यदि वह कुछ ठान ले तो फिर उसे कोई नही रोक सकता, आचार्य उसे इस आश्रम के प्रधान के रूप में देख रहे थे वही वह हर बार अपने मन की कर के उनकी उम्मीदों पर पानी फेर देता। काफी देर तक वे करवट बदल-बदलकर ब्रह्मेश के साथ बिताए क्षणों के बारे में सोचते रहे। कोई कितना भी ज्ञानी क्यों न हो परन्तु जब स्वयं की बारी आती है न तो सारा ज्ञान धरा का धरा रहा जाता है। हृदय में उमड़ती भावनाओ के आगे मस्तिष्क की हर चाल नतमस्तक हो जाती है। यही हाल आज आचार्यवर सूरज शुक्ल का था। सोचते-सोचते उनकी आँखें थक सी गयी और उन्हें झपकियां आने लगीं।
"जब तुम्हें उसका दूर जाना इतना ही चुभ रहा है तो उसे रोक क्यों नही लेते।" आचार्य के कक्ष में उनकी पत्नी, इस आश्रम की गुरुमाता प्रवेश करते हुए बोलीं। उन्हें देखकर भी यही प्रतीत होता था कि उन्हें नींद नही आ रही है।
"तुम्हें तो सब ज्ञात है प्रिये! जब वह मुझे ऐसी अवस्था में मिला था जो मैंने यह समझा था कि इस बालक में कुछ विशेष है अतः मैं इसके मार्ग में कभी बाधक नही बनूंगा। मैं स्वयं को दिए इस वचन को कैसे तोड़ सकता हूँ!" आचार्य उठकर बैठते हुए बोले। उनका स्वर गंभीर हो गया था, ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने कई दिनों से पानी नही पिया है।
"तो फिर क्यों जब वह कहीं जाने को निकलता है तो आपका हृदय इतना दुखी हो जाता है।" गुरुमाता उनके पास बैठते हुए बोलीं।
"हे स्नेहमयी! इस आश्रम का हर एक बालक-बालिका हमारे अपने पुत्र-पुत्री समान है तो तुम्हीं बताओ तुम्हें क्यों इतनी चिंता सता रही है? तुम्हें अब तक नींद क्यों नही आई?" आचार्य ने गुरुमाता से पूछा। दोनों की आँखे द्रवित हो गयी थी।
"नही मुझे चिंता नही हो रही! परन्तु न जाने क्यों हृदय में कोई बाण सा बिंध रहा है।" गुरुमाता व्यकुलित स्वर में बोली।
"इसे ही चिंता कहते हैं देवी! हम दोनों के लिए वह हमारे पुत्रों से भी प्रिय है। वह हमारा सगा नही है, न ही हमारा उससे कोई रक्तसम्बन्ध है, परन्तु वह हमारे हृदय में विशेष है। वह जिस प्रकार हमारे दुःख-सुख को बिना व्यक्त किये समझ जाता है उसी प्रकार हम भी उसे अनुभूत कर सकते हैं। यही प्रेम का रिश्ता है प्रिये! सम्पूर्ण जगत में यही एक सच्चा रिश्ता है।" आचार्यवर ने गुरुमाता को समझाते हुए कहा।
"मैं सब समझती हूँ स्वामी परन्तु आज पहले से कुछ ज्यादा विचित्र लग रहा है। मन में बार बार यही आशंकाएं सागर की लहरों के समान उठ रही हैं कि यदि वह इस बार गया तो हम उसे दुबारा कभी नही मिल पाएंगे।" गुरुमाता द्रवित स्वर में बोली। "मैंने एक दुःस्वप्न देखा स्वामी, मेरा जी घबरा रहा है, कृपया उसे रोक लें।" उनके स्वर में विनती के भाव थे।
"मैं भी यही चाहता हूँ प्रिये! परन्तु कुछ नही कर सकता। महाकाल पर आस रखो, वह महाकाल का परम भक्त है, महाकाल उसपर एक खरोंच भी नही आने देंगे।" आचार्य किसी तरह गुरुमाता को सांत्वना दी रहे थे, परन्तु उनका हृदय और विचलित होता जा रहा था वह किसी के समझाने से समझने वाला नही था।
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भोर होते ही आश्रम, पक्षियों के कलरव से गूँजने लगा। सभी विद्यार्थी स्नानादि से निवृत्त होने के लिए उठ गए। आज वायु में पहले से अधिक नमी थी, पत्तों से ओस की बूंदें नीचे टपक रही थीं। ब्रह्मेश सभी कार्यो से निवृत्त होकर अपनी तैयारियां करने लगा। अपने आवश्यक सामान बांध लेने के बाद वह आचार्य की प्रभात-पूजा वंदना समाप्त होने का प्रतीक्षा करने लगा। शीघ्र ही वे अपने नित वंदन-पूजा समाप्त कर बाहर निकले, ब्रह्मेश को वहां खड़ा पाकर उनके कदम उसकी ओर बढ़ गए। ब्रह्मेश, उनके चरणों में झुककर आशीर्वाद लेता है।
"तुम एक अत्यंत दुष्कर कार्य करने जा रहे हो पुत्र! न जाने क्यों मन में कई आशंकाएं उत्पन्न हो रही हैं। परन्तु तुम जाओ, अपने धर्म का पालन करो! महाकाल तुम्हारी रक्षा करें।" उसके सिर पर हाथ रखकर, आचार्य ने कहा। "क्या तुम किसी को अपने साथ ले जाना चाहोगे?"
"नही आचार्य! ऐसे विषम स्थान पर मेरा अकेला जाना ही उचित होगा। मैं शीघ्र ही लौटूंगा।" ब्रह्मेश ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया। उसे आचार्य की कल की बात का अब भी भली भांति स्मरण था। प्राँगण में एक व्यक्ति श्वेत अश्व लेकर आया, ब्रह्मेश ने आश्रम के सभी आचार्यो एवं गुरुमाता से आशीर्वाद ग्रहण कर सभी से विदा लिया।
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मणिभद्र!
अत्यधिक हिम से ढके पहाड़ियों के बीच बसा हुआ यह गांव दुर्गम स्थल प्रतीत होता था। ब्रह्मेश का अश्व अब थक चुका था, इतने ठंड में उससे पांव नही उठाये जा रहे थे। विस्तार से वहीं छोड़कर आगे बढ़ा।
वृक्षों पर हिम लदे हुए थे, जहाँ कुछ दिन पहले ही वह भयानक दुर्घटना हुई थी, जिसके बारे में ब्रह्मेश को आचार्य ने बताया था, ब्रह्मेश यह देखने के लिए उसी रास्ते से यहां आया परन्तु वहां नाममात्र का कुछ भी शेष नही था। ऐसा लग रहा था जैसे यहां कभी कुछ हुआ ही नही हो।
ब्रह्मेश आगे बढ़ता रहा, ठंड के कारण उसकी गति बहुत कम थी। चलते चलते अब वह बुरी तरह थक चुका था, उसकी हालत पस्त थी परन्तु वह अभी रुकना नही चाहता था। वह यह जानने के लिए अतिउत्सुक था कि कैसे महाकाल के चरणों में बसे इस पवित्र भूमि पर अपवित्रता अपने पांव पसार रही है। जैसे जैसे वह आगे बढ़ रहा था उसे प्रकृति की सुंदर महक में कोई दुर्गंध आने लगी, उसका सिर चकराने लगा। इस समय वह एक पहाड़ी की चोटी से गुजर रहा था, यहां से गिरने का मतलब था एक दर्दनाक मौत! ब्रह्मेश ने स्वयं को सम्भालना चाहा परन्तु अब स्थिति उसके वश से बाहर की थी, वह पहाड़ी से ढलान की ओर गिरता ही गया।
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"ऐसे पवित्र हृदय को हम कहाँ से ढूंढेंगे वीर" वीर के पीछे भागता हुआ सुपीरियर लीडर बोला। "यदि इस बार हम कुछ न कर सके तो नराक्ष सबको बड़ी निर्ममता से के भयानक मृत्यु देंगे।" सुपीरियर लीडर इस बार काफी घबराया हुआ था।
"हमें ढूंढने की आवश्यकता नही है सुपीरियर लीडर! वह स्वयं ही हमें ढूंढता हुआ यहां तक आ पहुंचा है।" अपने चेहरे पर विचित्र मुस्कान सजाते हुए वीर बोला। "हमें बस उसे, ग्रेमन और उसके नुमाईंदों की दृष्टि से बचाकर वहां तक पहुँचाना है जहां विस्तार शक्ति है। फिर हमारी शक्ति इतनी अधिक होगी कि हम एक क्षण में सारी दुनिया को जीत सकते हैं। हाहाहा.."
वीर के साथ सुपीरियर भी अट्ठहास करने लगा, उसकी शैतानी आँखों में चमक बढ़ गयी।
"जो जितनी वीभत्सता करेगा वह उतनी ही जल्दी जीतेगा।" वीर अपने दोनों हाथ लहराकर बोला। वहां खड़ी एक चट्टान टूटकर टुकड़ो में बिखर गई।
"मेरे हाथ तो उस डार्क लीडर को सबक सिखाने के लिए लालायित हैं, वह जैसे ही मेरे सामने आएगा मैं उस जलती खोपड़ी की आग बुझा दूंगा।" अट्ठहास करता हुआ सुपीरियर लीडर क्रूरता से एक एक शब्द को चबाते हुए बोला।
"तुम्हारा समय भी अवश्य आएगा सुपीरियर लीडर! विस्तार ने उसे चुना है जिसका जन्म स्वयं अंधेरे की शक्ति से हुआ है, अब उसकी शक्ति को स्वामी नराक्ष में स्थानांतरित कर उन्हें महाशक्तिशाली एवं अजेय बनाने का समय आ चुका है।" वीर उड़ता हुआ एक स्थान से अदृश्य हो जाता है, सुपीरियर लीडर भी उसके साथ वहां से चला जाता है।
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"हमें जगाने की मूर्खता किसने की?" जलते हुए लपट के समान उठकर वह डार्क फेयरी बोली। उसने दूसरे बक्से में दूसरी डार्क फेयरी जो राख के समान होने के बावजूद चमक रही थी और तीसरे बक्से में नीले रंग के ताज को पहने, माणिक के समान चमकती हुई मैत्रा थी।
"ऐश! तुम भी यहां?" राख के समान लगने वाली चमकती फेयरी को देखकर वह आश्चर्यचकित रह गयी थी।
"तुमने हमें जगाने की कोशिश क्यों की? हमने अपने कार्य को पूर्ण कर मानव रूप में यहां निवास इसलिए बनाया ताकि इस का क्रम न टूटे जिससे यह शक्ति नियंत्रित रहे।" जलती हुई वह फेयरी क्रोध से भर गई।
"वाक़ई! क्या कमाल है। तुमने प्रसंसा योग्य कार्य किया है डार्क लीडर!" ग्रेमन, डार्क लीडर की प्रसंसा करते हुए बोला।
"हम यहां कैसे आ गए आँच? हमें इस रूप में किसने जगाया?" दूसरी फेयरी जो चमकते राख के समान थी उसकी आंखें भी आश्चर्यचकित थीं।
"पता नही ऐश! हमें इस रूप में जगाने के मार्ग का उल्लेख तो कही भी नही है। यहां तक कि कोई हमें जानता तक भी नही।" आँच खीझकर बोली। जायज था वह ऐसे जगाए जाने से खुश नही थी।
"हमनें तुम तीनो को जगाया है देवियो! हाहाहा…" ग्रेमन जोरदार अट्ठहास करने लगा, उसके अट्ठहास के गूंज से वह स्थान कांप गया।
"अब तुम्हें मेरी इच्छाओं की पूर्ति करनी ही होगी।" ग्रेमन धूर्तता भरी निगाहों से उन्हें देखते हुए बोला।
"क्या चाहिए तुम्हें!" मैत्रा क्रोध भरे स्वर में पूछी। अचानक उन तीनों में कोई विशेष परिवर्तन आने लगा, उनके कठोर शब्द एवं प्रश्न बदलकर नम्य हो गए, अब कोई प्रश्न शेष न थे।
"वहीं जो आप हमें दे सकती हैं देवी!" ग्रेमन ने उस परिवर्तन को महसूस कर लिया था। ये शक्तियां थोड़ी ही देर में अपनी मानवीय स्मृतियों एवं भावनाओ को भूल जाती हैं।
"अवश्य मिलेगा लार्ड ग्रेमन! तुम अंधेरे के ईश्वर अवश्य बनोगे।" तीनो ने एक स्वर में कहा। यह सुनते ही ग्रेमन की आँखे खुशी से नाच उठी
"अब मैं अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी जिसने हमें कई बार मात दिया है उस तुच्छ नराक्ष से प्रतिशोध लूंगा, उसके पश्चात इस सम्पूर्ण संसार एक नरक बना दूंगा। हाहाहा…!" एक बार फिर ग्रेमन की शैतानी अट्ठहास से यह स्थान कांपकर डोलने लगा। डार्क फेयरीज़ और मैत्रा की आंखों में भी शैतानी भाव भर आये थे।
क्रमशः….
Farhat
25-Nov-2021 06:33 PM
Good
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🤫
07-Sep-2021 01:27 PM
इंट्रेस्टिंग... स्टोरी, ये पार्ट कैसे रह गया था ...🤔
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